Shattila Ekadashi Vrat Katha: षटतिला एकादशी व्रत कथा

षटतिला एकादशी व्रत कथा का गहन विवरण

नारद मुनि का प्रश्न और भगवान विष्णु का उत्तर

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद मुनि जिज्ञासु स्वभाव के कारण अनेक विषयों पर ज्ञान प्राप्त करते थे। एक बार उन्होंने भगवान विष्णु से षटतिला एकादशी व्रत के विशेष महत्व के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। यह व्रत क्यों किया जाता है? इसका पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है? इन सवालों का उत्तर देते हुए भगवान विष्णु ने नारद मुनि को एक प्रेरणादायक कथा सुनाई।


ब्राह्मणी का चरित्र और उसका जीवन

भगवान विष्णु ने बताया कि प्राचीन काल में एक ब्राह्मणी रहती थी, जो अत्यंत धार्मिक और नियमों का पालन करने वाली थी। वह प्रतिदिन भगवान विष्णु का पूजन करती, व्रतों का पालन करती और अपने जीवन को साधना में समर्पित मानती थी। हालांकि, उसमें एक विशेष कमी थी—वह किसी को दान नहीं देती थी।

उसके हृदय में केवल अपनी पूजा का अभिमान था, लेकिन दूसरों की सेवा या सहायता का भाव नहीं था। यह एक ऐसा पक्ष था जो उसकी आध्यात्मिक यात्रा को अधूरा बनाता था।


भगवान विष्णु का ब्राह्मणी की परीक्षा लेना

भगवान विष्णु ने सोचा कि उसे दान के महत्व का बोध कराना आवश्यक है। इसलिए, वे भिक्षुक के वेश में उसके द्वार पर पहुंचे। जब उन्होंने ब्राह्मणी से भिक्षा मांगी, तो उसने अपनी संपत्ति का कोई भाग न देकर केवल मिट्टी का एक पिंड उन्हें दे दिया। यद्यपि यह एक तुच्छ दान था, परंतु भगवान ने उसे स्वीकार किया और बिना कुछ कहे लौट गए।


ब्राह्मणी का बैकुंठ में प्रवेश

कुछ समय बाद ब्राह्मणी की मृत्यु हो गई। भगवान विष्णु की कृपा से वह बैकुंठ पहुंची। वहां पहुंचने पर उसने देखा कि उसे एक कुटिया दी गई है। वह कुटिया पूरी तरह खाली थी, जिसमें कोई सुख-सुविधा या संपदा नहीं थी। वहां केवल एक आम का पेड़ था, जो प्रतीकात्मक रूप से उसे दिए गए दान को दर्शाता था।

ब्राह्मणी इस स्थिति से अत्यंत व्यथित हुई। उसने भगवान विष्णु से प्रश्न किया, “मैंने जीवनभर आपकी पूजा और व्रत किए। फिर भी मुझे ऐसी कुटिया क्यों मिली?”


दान का अभाव और उसका परिणाम

भगवान विष्णु ने कहा, “हे ब्राह्मणी! तुमने मेरी भक्ति तो की, परंतु तुमने कभी दान का महत्व नहीं समझा। जीवन में केवल पूजा-पाठ से काम नहीं चलता, दूसरों के प्रति दयाभाव और सहायता का भी बड़ा महत्व है। दान के बिना तुम्हारी साधना अधूरी रही। यही कारण है कि तुम्हें इस खाली कुटिया में रहना पड़ा।”

यह उत्तर ब्राह्मणी के लिए आंखें खोलने वाला था। उसे एहसास हुआ कि पूजा के साथ सेवा और परोपकार भी समान रूप से आवश्यक हैं।


षटतिला एकादशी का विधान सीखने की प्रक्रिया

भगवान विष्णु ने ब्राह्मणी को एक उपाय बताया। उन्होंने कहा, “जब देव कन्याएं तुम्हारे द्वार पर आएं, तो उनके समक्ष षटतिला एकादशी का विधान पूछो और उसका पालन करो। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे जीवन में समृद्धि और संतोष लौट आएगा।”

ब्राह्मणी ने वैसा ही किया। देव कन्याओं से षटतिला एकादशी के व्रत का संपूर्ण विधान सीखकर उसने व्रत का पालन किया। इस व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न, धन और सुख-सुविधाओं से भर गई।


षटतिला एकादशी व्रत का महत्व

षटतिला एकादशी का नाम “षटतिला” इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें छह प्रकार से तिल का उपयोग किया जाता है। तिल का इस व्रत में अत्यंत महत्व है। इसका उपयोग स्नान, दान, भोजन, तर्पण, होम और प्रसाद के रूप में किया जाता है। तिल न केवल आध्यात्मिक रूप से पवित्र है, बल्कि इसका स्वास्थ्य और ऊर्जा पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।


षटतिला एकादशी व्रत के नियम और विधान

षटतिला एकादशी व्रत के पालन में कुछ विशेष नियम और प्रक्रियाएं होती हैं, जो इसके महत्व को और अधिक बढ़ाती हैं। इस व्रत में न केवल उपवास का महत्व है, बल्कि तिल से जुड़ी विशेष प्रक्रियाओं का भी पालन किया जाता है। भगवान विष्णु ने ब्राह्मणी को इन प्रक्रियाओं के महत्व और पालन करने की विधि को विस्तार से बताया था।


व्रत के दिन तिल का उपयोग

षटतिला एकादशी में तिल का उपयोग छह रूपों में किया जाता है। ये सभी उपयोग हमारे जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाते हैं।

  1. स्नान में तिल का उपयोग: व्रती को स्नान के जल में तिल मिलाकर स्नान करना चाहिए। यह शरीर को शुद्ध करता है और नकारात्मक ऊर्जा को दूर करता है।
  2. तर्पण में तिल: तर्पण के लिए तिल का उपयोग किया जाता है। इससे पितरों को संतुष्टि मिलती है और उनकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
  3. होम में तिल: यज्ञ या हवन में तिल की आहुति देने से घर का वातावरण शुद्ध होता है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
  4. दान में तिल: तिल का दान अत्यंत पुण्यदायी माना गया है। यह दान दीन-दुखियों की सहायता के साथ-साथ हमारे पापों का नाश भी करता है।
  5. भोजन में तिल: तिल से बने व्यंजनों का भोजन करना या प्रसाद के रूप में वितरित करना स्वास्थ्यवर्धक और पुण्यदायी माना जाता है।
  6. तिलमिश्रित जल का पान: तिल मिले जल का पान शरीर को अंदर से शुद्ध करता है और विषैले तत्वों को समाप्त करता है।

षटतिला एकादशी का उपवास

व्रती को इस दिन उपवास रखते हुए भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। उपवास दो प्रकार का हो सकता है:

  1. निर्जला उपवास: इसमें पूरा दिन और रात बिना भोजन और जल ग्रहण किए व्रत रखा जाता है।
  2. फलाहार उपवास: यदि निर्जला उपवास कठिन हो, तो फल और तिल से बने व्यंजनों का सेवन किया जा सकता है।

पूजन विधि

  1. व्रत से एक दिन पहले सात्विक भोजन ग्रहण करें और शुद्ध मन से व्रत की तैयारी करें।
  2. प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
  3. भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर के समक्ष दीपक जलाएं और तिल मिले जल से अभिषेक करें।
  4. तिल और गुड़ से बने लड्डू या अन्य प्रसाद अर्पित करें।
  5. विष्णुसहस्रनाम का पाठ करें या “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जप करें।
  6. रात्रि जागरण करें और भजन-कीर्तन का आयोजन करें।

व्रत के फल और लाभ

भगवान विष्णु ने नारद मुनि को बताया कि षटतिला एकादशी का पालन करने से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट होते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त, इस व्रत से निम्न लाभ भी प्राप्त होते हैं:

  1. जीवन में समृद्धि और सुख-शांति का आगमन होता है।
  2. भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।
  3. पितरों को तर्पण से शांति प्राप्त होती है।
  4. मानव का चित्त निर्मल और पवित्र बनता है।
  5. यह व्रत विशेष रूप से दान के महत्व को समझाने वाला है। तिल का दान करने से गरीब और जरूरतमंदों को मदद मिलती है।

कथा का गहन संदेश

षटतिला एकादशी की कथा और इसका विधान यह सिखाता है कि केवल पूजा और भक्ति पर्याप्त नहीं हैं। भक्ति के साथ परोपकार और दान का होना भी उतना ही आवश्यक है। यदि हम केवल अपनी आत्मा के कल्याण के लिए प्रयासरत रहते हैं और समाज की उपेक्षा करते हैं, तो हमारी साधना अधूरी मानी जाती है।

यह कथा बताती है कि तिल, जो जीवन में शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है, का उपयोग न केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है, बल्कि यह हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में भी योगदान देता है।


समापन विचार

षटतिला एकादशी केवल एक व्रत नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित और समृद्ध बनाने की प्रक्रिया है। यह व्रत सिखाता है कि भगवान की भक्ति तभी पूर्ण होती है, जब उसमें परोपकार, दया और दान का समावेश हो।