पापमोचनी एकादशी व्रत कथा
ऋषि मेधावी की तपस्या का महत्व
प्राचीन समय में चैत्ररथ वन अपनी अद्वितीय प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध था। यह वन तपस्वियों और साधकों के लिए आदर्श स्थान माना जाता था। इसी वन में ऋषि मेधावी ने अपनी तपस्या का आरंभ किया। वे अपनी साधना के लिए पूर्ण रूप से समर्पित थे और सांसारिक इच्छाओं से दूर रहते थे। उनकी साधना इतनी प्रबल थी कि उनके तप के तेज से पूरे वन का वातावरण पवित्र और शांत रहता था। ऋषि का जीवन संयम और अनुशासन का प्रतीक था।
अप्सरा मंजुघोषा और कामदेव की योजना
अप्सरा मंजुघोषा स्वर्गलोक की एक सुंदर और गुणी अप्सरा थी, जो अपने नृत्य और संगीत से देवताओं को मोहित कर देती थी। स्वर्ग के अन्य देवताओं और कामदेव ने यह अनुभव किया कि ऋषि मेधावी की तपस्या इतनी शक्तिशाली हो रही है कि वह देवताओं के स्थान को चुनौती दे सकती है। इस डर से उन्होंने मंजुघोषा से ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए अनुरोध किया।
मंजुघोषा अपनी वीणा लेकर चैत्ररथ वन में पहुंची। उसने ऐसे स्थान का चयन किया, जहां से ऋषि की ध्यानावस्था को भंग करना सरल हो। उसने मधुर संगीत और मनमोहक नृत्य के माध्यम से पूरे वन के वातावरण को आल्हादित कर दिया। संगीत के साथ ही कामदेव ने भी अपना प्रभाव डाला, जिससे ऋषि की तपस्या पर संकट मंडराने लगा।
ऋषि की तपस्या भंग
अप्सरा मंजुघोषा का स्वरूप इतना आकर्षक था कि तपस्वी ऋषि भी उसके मोहजाल में फंस गए। उन्होंने अपनी साधना छोड़कर मंजुघोषा के साथ समय बिताना आरंभ कर दिया। ऋषि को समय का ज्ञान नहीं रहा, और वे लंबे समय तक मंजुघोषा के साथ रमण करते रहे। इस दौरान उनके तप की शक्ति और उनका आत्मिक तेज क्षीण होने लगा।
मोहभंग का क्षण
57 वर्षों का समय बीत गया, लेकिन ऋषि को यह आभास तक नहीं हुआ कि उन्होंने अपना ध्येय छोड़ दिया है। एक दिन उन्हें अचानक अपनी गलती का एहसास हुआ। वे अपने आत्मविवेक के जागृत होने पर अत्यंत दुखी और क्रोधित हुए। ऋषि ने महसूस किया कि उनकी तपस्या का उद्देश्य साधारण सांसारिक सुखों के कारण नष्ट हो गया है।
मंजुघोषा को श्राप और उसका प्रभाव
आत्मग्लानि और क्रोध में आकर ऋषि ने मंजुघोषा को पिशाचिनी बनने का श्राप दे दिया। यह श्राप सुनते ही मंजुघोषा हतप्रभ रह गई। उसने अपनी भूल स्वीकार की और ऋषि से प्रार्थना की कि वे उसे श्राप से मुक्त करने का उपाय बताएं।