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देवशयनी एकादशी व्रत कथा (विस्तृत विवरण)
धर्मराज युधिष्ठिर का जिज्ञासापूर्ण प्रश्न
धर्मराज युधिष्ठिर, जिनकी धर्म और सत्य के प्रति गहरी आस्था थी, ने भगवान श्रीकृष्ण से इस एकादशी के महत्व और व्रत की विधि के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने पूछा:
“हे भगवन्, आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? इसे रखने की विधि क्या है और इस दिन किन देवताओं की पूजा करनी चाहिए?”
भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी जिज्ञासा का आदर करते हुए उत्तर दिया:
“हे युधिष्ठिर, मैं तुम्हें वह कथा सुनाऊंगा जो स्वयं ब्रह्माजी ने नारदजी को सुनाई थी। इस एकादशी का महत्व अपार है और इसका व्रत करने से समस्त कष्टों का नाश होता है।”
देवऋषि नारदजी का ज्ञान-प्राप्ति का प्रयास
भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को यह कथा सुनाने से पहले वह प्रसंग बताया जिसमें देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी का रहस्य पूछा था। नारदजी, जो स्वयं ज्ञान और भक्ति के प्रतीक माने जाते हैं, ने जब इस एकादशी के बारे में सुना, तो उनकी उत्सुकता बढ़ गई।
उन्होंने ब्रह्माजी से निवेदन किया:
“हे पितामह, कृपया मुझे बताइए कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या महत्व है और इसका पालन करने से कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं?”
ब्रह्माजी, नारदजी के प्रश्न से प्रसन्न होकर, इस एकादशी की विस्तृत कथा सुनाने लगे।
सतयुग की पृष्ठभूमि: चक्रवर्ती सम्राट मांधाता का राज्य
ब्रह्माजी ने नारदजी को सतयुग की कथा सुनाई, जब पृथ्वी पर धर्म का बोलबाला था और सत्य, अहिंसा, तथा तप का विशेष महत्व था। उस काल में मांधाता नामक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। मांधाता अपने धर्मनिष्ठ शासन और प्रजा के प्रति प्रेम के लिए प्रसिद्ध थे।
उनके राज्य में सुख-शांति थी, और प्रजा हर प्रकार से संपन्न थी। लेकिन समय ने करवट ली, और राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। परिणामस्वरूप भयंकर अकाल पड़ा। भूमि बंजर हो गई, जलस्रोत सूख गए, और प्रजा भोजन तथा जल के लिए तरसने लगी।
प्रजा की गुहार
प्रजा, जो अपने राजा को भगवान के समान मानती थी, उनके पास मदद के लिए पहुंची। उन्होंने कहा:
“हे महाराज, हम आपके राज्य में सुखी जीवन जी रहे थे, लेकिन अब यह अकाल हमें बर्बाद कर रहा है। कृपया हमारे लिए कोई उपाय करें।”
राजा मांधाता भी इस स्थिति से अत्यंत चिंतित हो गए। धर्म के प्रति उनकी निष्ठा उन्हें कोई अनुचित कदम उठाने से रोक रही थी, लेकिन प्रजा के कष्ट को देखकर उन्होंने इस समस्या का समाधान खोजने का निश्चय किया।
अंगिरा ऋषि का आश्रम: समाधान की खोज
राजा मांधाता ने जंगल का रुख किया, जहां उन्होंने ब्रह्माजी के पुत्र और महान तपस्वी अंगिरा ऋषि का आश्रम पाया। अंगिरा ऋषि ने उनका स्वागत किया और पूछा:
“हे राजन, आपके राज्य में सुख-शांति का वातावरण है। फिर आप इस वन में क्यों पधारे हैं?”
राजा ने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा:
“हे मुनिवर, मैंने अपने राज्य में सदैव धर्म का पालन किया है। प्रजा की भलाई के लिए सभी नीतियों का अनुसरण किया है। फिर भी मेरे राज्य में यह भयंकर अकाल क्यों पड़ा है? कृपया मुझे इस समस्या का समाधान बताएं।”
धर्म का पालन और कर्म का फल
अंगिरा ऋषि ने राजा की बात सुनने के बाद कहा:
“हे राजन, सतयुग में धर्म की महत्ता इतनी अधिक है कि एक छोटे से पाप का भी बड़ा दंड मिलता है। आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यह कार्य सतयुग में धर्म के विपरीत है, क्योंकि उस समय केवल ब्राह्मणों और तपस्वियों को ही तप करने का अधिकार है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह शूद्र तपस्वी तपस्या नहीं छोड़ता या मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, यह दुर्भिक्ष समाप्त नहीं होगा।”
राजा का धर्मसंकट
राजा मांधाता, जो धर्म और सत्य का पालन करते थे, ने ऋषि की बात सुनकर कहा:
“हे मुनिवर, मैं एक शूद्र तपस्वी को केवल इसलिए मार नहीं सकता क्योंकि वह धर्म के नियमों का पालन नहीं कर रहा है। यह कार्य धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध होगा। कृपया मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मैं प्रजा को इस संकट से बचा सकूं और किसी निर्दोष का अहित न हो।”
ऋषि का समाधान
अंगिरा ऋषि ने समाधान बताते हुए कहा:
“हे राजन, यदि आप शूद्र तपस्वी को नहीं मार सकते, तो आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस एकादशी को पद्मा एकादशी भी कहते हैं। इसका विधिपूर्वक पालन करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होंगे और आपके राज्य में वर्षा होगी।”
राजा मांधाता का निर्णय और व्रत का आयोजन
अंगिरा ऋषि के सुझाव को सुनने के बाद राजा मांधाता ने ठान लिया कि वह पद्मा एकादशी का व्रत विधिपूर्वक करेंगे। उन्होंने तुरंत अपने राज्य लौटने का निर्णय लिया और प्रजा को इस व्रत का महत्व समझाने के लिए एक सभा आयोजित की।
उन्होंने प्रजा से कहा:
“हे प्रजाजनों, इस संकट से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है कि हम सभी भगवान विष्णु की आराधना करें और आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत रखें। यह व्रत न केवल हमारे राज्य को इस अकाल से बचाएगा, बल्कि हमारे पापों का भी नाश करेगा।”
राजा के आदेश पर पूरे राज्य में व्रत के आयोजन की तैयारी शुरू हो गई। मंदिरों को सजाया गया, जगह-जगह भगवान विष्णु की मूर्तियों की स्थापना की गई, और सभी लोग व्रत की विधि जानने के लिए उत्सुक हो गए।
पद्मा एकादशी व्रत की विधि
अंगिरा ऋषि ने राजा मांधाता को इस व्रत को सही तरीके से करने की विधि बताई। उन्होंने कहा:
“हे राजन, व्रत का पालन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:”
व्रत का आरंभ
- दशमी तिथि की तैयारी:
व्रत का आरंभ दशमी तिथि की शाम से किया जाता है। इस दिन सात्त्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए और मन को पवित्र रखना चाहिए। - रात्रि में भगवान का ध्यान:
दशमी की रात्रि में सोने से पहले भगवान विष्णु का स्मरण करें और व्रत के सफल होने की प्रार्थना करें।
व्रत का मुख्य दिन (एकादशी तिथि)
- प्रातः स्नान और संकल्प:
प्रातःकाल स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इसके बाद भगवान विष्णु के समक्ष व्रत का संकल्प लें।
संकल्प इस प्रकार लिया जा सकता है:
“हे भगवान विष्णु, मैं आपकी कृपा के लिए और अपने कष्टों के निवारण हेतु पद्मा एकादशी व्रत का पालन करूंगा। कृपया मेरे व्रत को स्वीकार करें।” - पूजा विधि:
- भगवान विष्णु की मूर्ति को पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, और शक्कर) से स्नान कराएं।
- मूर्ति को वस्त्र और फूलों से सजाएं।
- दीपक जलाकर भगवान को तुलसी पत्र, फल, और नैवेद्य अर्पित करें।
- एकादशी कथा का श्रवण:
इस दिन देवशयनी एकादशी की कथा अवश्य सुनें। कथा सुनने से व्रत का महत्व और भी बढ़ जाता है। - भजन और कीर्तन:
दिनभर भजन और कीर्तन करें। भगवान विष्णु के नाम का जाप करते रहें। - निर्जला या फलाहार व्रत:
व्रती को या तो निर्जला व्रत रखना चाहिए, या फिर केवल फल और दूध का सेवन करना चाहिए।
रात्रि जागरण
एकादशी की रात जागकर भगवान विष्णु का ध्यान करें। यह व्रत का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। कहा जाता है कि जो इस रात जागकर भगवान का स्मरण करता है, उसे अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।
व्रत का पारण (द्वादशी तिथि)
एकादशी व्रत का समापन द्वादशी तिथि के दिन पारण के साथ किया जाता है।
- स्नान और पूजा:
प्रातः स्नान कर भगवान विष्णु की विधिपूर्वक पूजा करें। - ब्राह्मणों को दान:
दान का विशेष महत्व है। अन्न, वस्त्र, और धन का दान ब्राह्मणों को करें। - भोजन ग्रहण:
द्वादशी को व्रत खोलने के बाद सात्त्विक भोजन ग्रहण करें।
व्रत का प्रभाव: मूसलधार वर्षा
राजा मांधाता और उनके राज्यवासियों ने पूरे विधि-विधान से पद्मा एकादशी का व्रत किया। भगवान विष्णु उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए। व्रत के समापन के तुरंत बाद, आकाश में घने बादल छा गए और मूसलधार वर्षा होने लगी।
राज्य में खुशहाली का आगमन
जलाशय भर गए, खेतों में हरियाली छा गई, और अकाल का अंत हो गया। राजा मांधाता ने प्रजा को यह संदेश दिया:
“देवशयनी एकादशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और जीवन के संकटों को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। आइए, हर वर्ष इस व्रत को विधिपूर्वक करें और भगवान की कृपा प्राप्त करें।”
देवशयनी एकादशी का आध्यात्मिक महत्व
इस व्रत का नाम देवशयनी इसलिए रखा गया है क्योंकि इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में जाते हैं। यह समय चातुर्मास का आरंभ होता है, जो चार महीनों तक चलता है। यह व्रत न केवल शारीरिक और मानसिक शुद्धि का माध्यम है, बल्कि आत्मा को भगवान से जोड़ने का भी एक पवित्र साधन है।
आप चाहे सुखद जीवन की कामना करें, या अपने पापों से मुक्ति पाना चाहें, देवशयनी एकादशी का व्रत हर दृष्टि से लाभकारी है।